Thursday, March 5, 2009

बदलाव

जब था बचपन
तब था सचपन
थी वो गलियां
था वो आँगन ,
ना सूनापन
बस चंचल मन
वो अपनापन
अपना जीवन
ना थी हलचल
ना उथलपुथल
ना कोलाहल
बस अपनी चल ,
पाया वह सब
जब जी गया मचल
अपनी बातें , अपनी रातें ,
अपना सबकुछ , सब थे अपने

अब है यौवन
थोडी अनबन
कुछ सूनापन
कुछ अपनापन
है उथलपुथल ,
अब भटक रहा मन
दिखता मधुबन
सारा जीवन

4 comments:

  1. कहाँ वो बचपन ,
    जहाँ था सचपन ,
    कहाँ वो गलियाँ ,
    कहाँ वो आँगन ,
    हाथ मे चाबुक ,
    तखत का ताँगा ,
    जो खडे-खडे ही ,
    सरपट भागा ,
    अब है गुन्जन ,
    और कोलहल ,
    हरदम छुक छुक ,
    हरदम धुक-धुक ,
    सारा जीवन ,
    सारा जीवन ।

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  2. शाबाश! अति उत्तम!बहुत उम्दा लिखा है!
    ब्लोगिंग जगत मे स्वागत है
    सुंदर रचना के लिए शुभकामनाएं
    भावों की अभिव्यक्ति मन को सुकुन पहुंचाती है।
    लिखते रहि‌ए लिखने वालों की मंज़िल यही है ।
    कविता,गज़ल और शेर के लि‌ए मेरे ब्लोग पर स्वागत है ।
    मेरे द्वारा संपादित पत्रिका देखें
    www.zindagilive08.blogspot.com
    आर्ट के लि‌ए देखें
    www.chitrasansar.blogspot.com

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  3. अहा!! क्या बात है! लगता है आप दोनो तो मेरे से आगे निकल पडोगे! :)

    थोडा चिन्तन,
    थोडा मन्थन,
    लिखते जाओ,
    पढेंगे सब जन!! :)

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