Sunday, May 17, 2009

माता -पिता

जन्मदाता माता -पिता के जीते जी, उनसे वात्सल्य भरे दो शब्द बोलकर ,
उनके दर्शन कर लो ,
इन करुनामूरती के आधे अधर बंद हो जाने पर आखरी समय में,
तैयार गंगा जल की दो बूँद मुह में डालकर क्या कर लोगे ?

हमेशा देने वाले, कभी कुछ अपेक्षा नही रखने वाले,
समय रहते सच्चे मन से, इन जीवित तीर्थों को समझ लो |
"खुश रहना बेटा" ऐसे शब्दों से अंतर्मन से आशीर्वाद देने वाले,
जब इस दुनिया में नही होंगे,तब अश्रुधारा बहा कर क्या कर लोगे ?

पतझड़ में भी बसंत की खुशबू जैसा व्यवहार रखना,
तुम भी अपने बच्चों के माँ-बाप हो, यह ध्यान रखना |
जैसा बोओगे, वैसा काटोगे, यह प्रकृति का नियम है,
माँ-बाप की देह पंचमहाभूत में मिलने के बाद, श्रद्धांजलि दे कर क्या कर लोगे ?

श्रवण बनकर बुढे माँ-बाप की लकडी बनो, यह तो अच्छा है,
लेकिन उन्हें दुःख पहुचाकर, उनकी आखो के अश्रुरूपी मोती मत बनना |
जीते जी सदा सारस के जोड़े की तरह साथ रहने वाले माँ-बाप को मत बाटना,
अपने लोगो का भी उपेक्षित व्यवहार, वे कैसे सहेंगे ?

नौ माह तक पेट में, गोद में तथा बाद अपने ह्रदय में रखकर, तुम्हे बड़ा करने वाले
माँ-बाप को सम्हालने का जब समय आए,तो उन्हें घर का द्वार मत दिखाना,
अभी तुमने उनको रखने की बारी बांधी है,लेकिन कल तुम्हारी बारी आने वाली है, ये याद रखना |
पैसा खर्च करके हर चीज मिल सकती है,लेकिन माँ-बाप कहीं नही मिलेंगे, यह ध्यान रखना|

अडसठ तीर्थ, माँ-बाप के चरणों में ही है यह जान लो,
जीवित रहे तब उनके ह्रदय को शान्ति देना,बाद में ऐसा मौका नही मिलेगा, ऐसा समझना|
माता-पिता की छत्रछाया,तो किन्ही भाग्यशाली पुत्रो को ही मिलती है, ऐसा जानना |
मातरु-देवो भव,पितृ-देवो भव, यह सनातन सत्य है, यह जान लो |

मेरी आपसे एक ही आग्रह भरी विनती है, की जब कभीं आप आपस में मिलो,
मुस्कराते मुख से, इतना ही कहना, माँ-बाबूजी मजे में है |

Sunday, May 10, 2009

क्या बची रह पायेगी आज़ादी ?

मुझे उक्त परिचर्चा का निमंत्रण तो मै पत्र मिलते ही सोचने लगा किक्या इस कार्य के लिए मुझे अपनीदिनचर्या से आजादी मिल पायेगी | लेकिन धन्यवाद हो आयोजको का , जिन्होंने इस कार्य के लिए मुझे मेरी दिनचर्या से कुछ समय के लिए आजाद होने पर मजबूर कर दिया और में अपने आप से बमुश्किल आजाद हो पाया |मै जब अपने आज से और आज के अपने आप से आजाद हुआ तो मुझे लगा कि हमें इस और चिंतन करने की बहुत जरुरत
है |
सोचता हू, शहीदों ने काटो की राह पर चलकर अपना बलिदान कर हमें शारीरिक रूप से आजाद करा दिया लेकिन क्या हम उनके उस बलिदान की खातिर उनकी याद में अपने गर्त में जा रहे वर्तमान से स्वयं को आजाद कराने के लिए अपने आपसे लड़ने में भी असमर्थ है ? मै भूतकाल में चला जाता हूँ ,स्वयं की पूज्य दादीमाँ के दर्शन करता हूँ जो हमें संसकारो का गुलाम रहने की और मन की चाह से आजाद रहाने की शिक्षा दे रही है लेकिन हमने उनकी उस शिक्षा को पूर्ण रूप से ग्रहण नही किया ,उस पर चिंतन नही किया और धीरे -धीरे दूर होती "शहिदो की आजादी "के मायने बदलकर हम और हमारे बाद हमारी भविष्य की पीदी "शहीदों की आजादी "को भुलाकर आजादी के नए मायने दुन्ढ़कर संस्कारो की गुलामी से आजाद होती चली गई और अब संस्कारो की गुलामी से पुरे तौर पर आजाद हो गई है | क्या बची रहेगी आजादी ? हाँ , बची रह सकती है ,जब हम उन दादीमा को सपनों में लाकर उनकी संस्कारो की शिक्षा को यादकर संस्कारो के गुलाम बनें तथा हमारी भविष्य की पीदी को उन संस्कारों की शिक्षा देकर उन संस्कारों का गुलाम बनाये |यदि यह हो सका तो हम और हमारी पीदी मन की गुलामी {चाह } से आजाद हो जायेगे क्योंकि आज हमारी भोतिक सुखों की चाह ही हमें "शहीदों की आजादी " और "उनके सपनों " से दूर लेती चली जा रही है | जरुर यह कठिन कार्य है लेकिन उतना कठिन नही जितना शहीदों ने किया है क्योंकि हमें इस लडाई में इस बार शहीद नही होना है , हमें सिर्फ़ जी कर आजाद होना है |

Thursday, April 30, 2009

बाबूजी शहर में आ के गाँव की मिटटी भूल गए ........


बाबूजी तुम शहर में आ के , गाँव की मिट्टी भूल गए ,
पढ़े लिखे पर कुछ नही सीखे , सारे गुण तुम भूल गए | बाबूजी तुम शहर में ........

गिल्ली डंडा , पतंग और धप्पा , बच्चों को है नही पता ,
मेला , गणगोर और माता पूजा , बच्चों को है नही पता ,
सुबह उठना भूल गए , और पूजा करना भूल गए | बाबूजी तुम शहर में ........

थाली - पीठ , आमाडी की भाजी , दीवाली के शक्करपारे ,
दशहरे में घर घर जाना, थैली में बिस्किट केले लाना ,
हाय, हल्लो , गुडमार्निंग में , पैर छुना भूल गए | बाबूजी तुम शहर में .........

वीरपोस पर गेहू ले जाना , पेट भरा हो तो भी खाना ,
दीवाली में भाईबिज आए , बहने खाना खाने बुलाये ,
दूर दूर के चक्कर में अब , वीरपोस भाईबिज भूल गए | बाबूजी तुम शहर में ........


बीबी तुम्हारी सर पर बैठी , लड़का - लड़की भी हवा में उड़ रहे ,
गाव में आने का नाम नही लेते, सारे ही तुम बिगड़ गए
माँ तुम्हारी रोती है पर , माँ को तुम कभी याद ना करते | बाबूजी तुम शहर में ........

पंक्ति में खाने को जाना , सभी काम में हाथ बटाना,
जाकर सब को मिलना जुलना , सभी को आना कहकर आना ,
बुफे बुफे की चका चोंध में , बैठ के खाना भूल गए | बाबूजी तुम शहर में .........

समय बदला लड़की बदली , जीन्स पहने वो फटी फटी ,
लड़की बाल कटाकर कर रखे , लड़का रखे पीछे चोटी ,
बच्चे बहुत पढ़ रहे है पर , संस्कार सारे भूल गए | बाबूजी तुम शहर में ........

दादी का वो लोरी गाना , बिस्तर पर कहानी सुनाना,
दादी की वो चिडी बाई , भूल गए तुम मेरे भाई ,
हर एक साल में एक बार तुम , आना जाना भूल गए | बाबूजी तुम शहर में .......

होटल में यूँ खाना खाना , मलाई कोफ्ता ,पनीर खाना ,
यह नही जमता , वो नही जमता ,बात बात में नखरा बनाना ,
छत पे बैठकर ,साथ बैठकर , खिचडी खाना भूल गए |बाबूजी तुम शहर में ........

ब्रेड , सेंडविच , पेटिस खाना , धानी , परमल अब नहीखाना ,
दूध , दही ना मक्खन खाना , भूल गए तुम छाछ बनाना ,
खेत में जाना , आम चूसना, उम्बी ,वानी भूल गए |बाबूजी तुम शहर में .....

श्लोक , दोहा , छंद ,सोरठा , होता क्या है पूछो तो ,
रामायण , हनुमान चालीसा , आती है क्या पूछो तो ,
फिल्मी गाने याद है पर , मन्त्र वंत्र सब भूल गए | kबाबूजी तुम शहर में .....

टेलीविजन के युग में हम , भूल गए अखबार को ,
अददा, पोना आता नही है , भूल गए हम पहाडो को ,
केलकुलेटर के चक्कर में ,हिसाब हाथ का भूल गए |बाबूजी तुम शहर में ......

भोरी , कंची, गोगलगाय , देर से आओं तो डांटे माँ ,
सितोलिया , छुआछाई , लंगडी , याद आए हमें आए हमें घड़ी -घड़ी ,
कंप्यूटर के युग में हम वो , सत्ती -सेंटर भूल गए | बाबूजी तुम शहर में .......

काम काम में गाड़ी ले जाना , बगेर गाड़ी के कही नही जाना ,
बच्चो को भी गाड़ी चाहिए , काम तुम्हारा नही तो भाड़ में जाए ,
गाड़ी घोडो के चक्कर में अब , पैर चलाना भूल गए | बाबूजी तुम शहर में .......

माँ की अब नही सुनते , बीबी कहती है करते है वो ,
पिताजी की अब नही सुनते , मन में आता है करते है वो
बीबी ,बच्चो के चक्कर में अब , माँ ,बाप को भूल गए | बाबूजी तुम शहर में ....

बीबी से अब काम नही होता , सर दुखाती है थोड़ा काम हो ,
पति अब बोलते नही है , बच्चे अब सुनते नही है ,
नौकरों के युग में अब सब , काम हाथ से करना भूल गए | बाबूजी तुम शहर में ........

चिमटी भरती पहले माँ , काम ग़लत हो तो झापट खा ,
बच्चे अब उतमा गए है, माँ -बाप सुस्ता गए है ,
लाड -प्यार के चक्कर में अब , चिमटी ,झापट भूल गए |बाबूजी तुम शहर में .....

कूलर बगेर नीद नही आए , हाथ का पंखा अब नही भाए,
बच्चो को एसी चाहिए , एसी बगेर सर दुखाये ,
कूलर, एसी के चक्कर में अब , छत पे सोना भूल गए | बाबूजी तुम शहर में .....

कहाँ जा रहा है यह बता , माँ हमेशा यह कहती थी ,
कहाँ से आ रहा है यह बता , माँ हमेशा यह पूछती थी ,
बिना कहे आना -जाना , माँ से कहना सुनना भूल गए | बाबूजी तुम शहर में .....

मेरी बीबी मेरे बच्चे , अब हम सब इतने ही है ,
अपना ये और अपना वो ,अब हम सब इसीमे है ,
अपने अपने के चक्कर में अब , प्रेम से रहना भूल गए |बाबूजी तुम शहर में ......

बस्ता भारी और किताबे छे , शिक्षा का कोई नाम नही है
पेंसिल ,रबर के चक्कर में अब ,पट्टी ,पेम का काम नही है ,
कोचिंगो के चक्कर में अब , ख़ुद से पढ़ना भूल गए | बाबूजी तुम शहर में .......

लिम्का,पेप्सी, कोकाकोला , पिने लग गए अब सब ये ,
कुल्फी और नीबू का शरबत , खो गए अब सब ये ,
कोलद्द्रिंक के चक्कर में अब , दूध पीना भूल गए | बाबूजी तुम शहर में .......

घोड़ा बादाम खाए पीछे देखे मार खाए , यहाँ पर बांधू भैस और यहाँ पर बांधू गाय ,
गोल-गोल घानी इतना -इतना पानी , इतना नामक खायगा और इतना मिर्च खाय ,
राजा गोप गुप्क्काम्दास , यह सब अब हम भूल गए | बाबूजी तुम शहर में ........

किसी से अब नही मिलाना जुलना , बीबी बच्चे ही प्यारे है ,
अपने चार और अपनी कार ,इनके लिए ही वारे- न्यारे है ,
अपनी रोटी सेकने में अब , मिलाना -जुलना भूल गए | बाबूजी तुम शहर में .......

एक ,दो ,तिन ,चार , याद है तुमको गिनती वो ,
एक एकम एक , दो दुनी चार , याद है तुमको पहाडे वो ,
अंग्रेजी के चक्कर में अब , अपनी गिनती भूल गए |बाबूजी तुम शहर में

Monday, March 9, 2009

कविता

कविता - दिल की बात , इश्वर की सौगात, अपने हालात
कविता - ख़ुद से मुलाकात , विचारों की एक रातशब्दों की बिसात
कविता - एक सुबह नई, कभी जो सुनी थी है बात वही, ना कुछ ग़लत हर बात सही
कविता - पुरानी बात अनकही, एक मुलाकात अनकही , सुहानी याद अनकही
कविता - अपना विश्वास , बिता मधुमास , हर लम्हा खास
कविता - शुध्ध उपहास , खुला हास (हास्य ), एक आभास
कविता - एक आशा , छुपी निराशा , अपनी भाषा
कविता - कुछ चुप चुप , कुछ गुप चुप , पर सब कुछ

होली

जाने कैसी अब होली है,
ना अब वो टोली है ,
ना अब वो हमजोली है ,
केवल आँख मिचोली है,
संबंधों की खाली झोली है।

ना अब वो साथी संगी है ,
ना अब वो दुनिया सतरंगी है ,
ना अब वो असली बोली है,
अब तो भाषा भादरंगी है।

जाने क्यूँ अब वह सब खोया है ,
हर कोई अन्दर से सोया है ,
ना अब वो दिल का खुलापन ,
अब तो बस तंगी ही तंगी है ।

ना अब वो बच्चे रंग बिरंगे है ,
ना आसमान में पतंगें है ,
अब तो बस दंगे ही दंगे हैं ,
बस सकूँ यही की हम आज भले - चंगे है ।

Sunday, March 8, 2009

जाग्रति

क्यों वे खामोश है ?
जिनमे भरा जोश है ,
हर तरफ़ जुल्म है पर उन्हें ना होश है ,
सोचता ही रहता है, जाने किसका दोष है ,
जिन्हें जागते रहना है , वे ही बेहोश है ,
जरुरत है उनकी, लेकिन वे मदहोश हैं ,
हर तरफ़ आतंकी हमला , क्यूँ उनका खून खोलता नही ?
क्यूँ वह अपने आप को तोलता नही ?
जब जरुरत है बोलने की , तो वह बोलता नही ,
उससे हमें उम्मीद है , पर वह मुंह खोलता नही

जब वह जागेगा , तभी आतंकी भागेगा